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अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक कूटनीतिक प्रयोग

यह महज संयोग है या अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक कूटनीतिक प्रयोग कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के मुखिया ने दूसरे शक्तिशाली देश के मुखिया से फोन पर डेढ़ घंटे बातचीत की है। यह बातचीत ऐसे समय में हुई है, जब दुनिया का एक तेजी से बढ़ता हुआ और आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर देश यानी भारत के प्रधानमंत्री से ट्रंप की मुलाकात होने वाली है। वैसे तो दुनियाभर में PM नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा को लेकर चर्चा है और कहा जा रहा है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते पहले से और बेहतर हुए हैं।

ट्रंप गुरुवार को प्रधानमंत्री मोदी की मेजबानी करेंगे। ट्रंप के पिछले महीने दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद दोनों नेताओं के बीच यह पहली द्विपक्षीय वार्ता होगी। इस बैठक में मोदी और ट्रंप द्विपक्षीय व्यापार, निवेश, ऊर्जा, रक्षा, प्रौद्योगिकी और आव्रजन जैसे क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने पर व्यापक चर्चा करेंगे लेकिन इस वैश्विक घटनाक्रम से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिशाली देश चीन की नींद उड़ गई हैं।

चीन के खिलाफ ट्रंप का मोर्चा

दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप रूस और भारत को साथ लेकर चीन के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहते हैं और उसे दुनियाभर में न केवल अलग-थलग करना चाहते हैं बल्कि उसका क्षेत्रीय वर्चस्व और व्यापारिक दादागिरी पर अंकुश लगाना चाहते हैं। ट्रंप ने इसके संकेत चुनावी अभियान के दौरान ही दे दिए थे और जब उन्होंने पिछले महीने सत्ता संभाली तो इसका ऐलान कर दिया। ट्रंप चीन पर 10 फीसदी टैरिफ लगाकर उसे साफ संदेश दे दे चुके हैं कि उसकी बादशाहत जाने वाली है। चीन ने भी अमेरिका से आयात होने वाले कोयला और गैस पर 15% का जवाबी टैक्स लगाकर व्यापार युद्ध को भड़का दिया है।

भारत को क्यों ले रहे साथ

अब ट्रंप ने चीन के सबसे भरोसेमंद और हाल के दिनों में बड़ा दोस्त और साझीदार बनकर उभरे रूस को अपने पाले में करना शुरू कर दिया है। ट्रंप चाहते हैं कि रूस को साथ लेकर उसके पूर्वी रूझान यानी चीन की तरफ हुए झुकाव को कम किया जाए और उसे अमेरिका संग कर चीन को अलग-थलग किया जाए। अमेरिकी विशेषज्ञों और ट्रंप के रणनीतिकारों का मानना है कि उनका मुख्य प्रतिद्वंद्वी रूस नहीं चीन है, इसलिए इसके लिए ट्रंप रूसी राष्ट्रपति पुतिन को द्वितीय विश्व युद्ध का वास्ता दे रहे हैं और फिर से एकसाथ आने का निमंत्रण दे रहे हैं। संभवतः इसीलिए ट्रंप ने पुतिन से बात कर ना सिर्फ मॉस्को जाने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है बल्कि उन्हें भी वॉशिंगटन आने का न्योता दिया है।

इसके अलावा एशिया में अपने बड़े साझीदार और चीन के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भारत को भी इस मुहिम में साथ लेने की कोशिशों में अमेरिकी प्रशासन जुटा हुआ है।

बाइडेन प्रशासन में US से दूर हुआ रूस

दरअसल, बाइडेन प्रशासन के दौरान रूस अमेरिका से न केवल दूर हुआ बल्कि यूक्रेन युद्ध के दौरान लगे आर्थिक और अन्य प्रतिबंधों की वजह से रूस को चीन की तरफ झुकना पड़ा है। इसे एक मजबूरी का सौदा, समझौता और सांठगांठ कहा जा सकता है। ट्रंप को पता है कि रूस भी अंदर से नहीं चाहता है कि उसका पड़ोसी चीन उसका प्रतिद्वंद्वी बने और विश्व महाशक्ति में दूसरा सुपर पॉवर बनकर उसके लिए क्षेत्रीय चुनौती बने, इसलिए रूस आंख बंदकर चीन पर भरोसा नहीं कर सकता है। चीन को यही बात खल रही है कि रूस उससे छिटक सकता है और मिडिल-ईस्ट में उसका दूसरा बड़ा रणनीतिक केंद्र ईरान भी कमजोर पड़ सकता है क्योंकि ट्रंप शासन ने पहले से भी ज्यादा दबाव ईरान पर बढ़ा दिया है। इस काम के लिए भी अमेरिका को रूस का साथ चाहिए। अमेरिका चाहता है कि ईरान के मसले पर रूस चुप्पी साधे रखे।

चीन क्यों परेशान

दूसरी तरफ, इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत पहले से ही चीन का प्रतिद्वंद्वी है, जो क्वाड का सदस्य देश है। ट्रंप इस मंच के जरिए इस क्षेत्र में न केवल भारत के साथ अपनी अहम साझेदारी को आगे बढ़ाना चाहते हैं बल्कि चीन पर भी लगाम कसना चाहते हैं। इसलिए जानकार मान रहे हैं कि बदलते ग्लोबल जियो पॉलिटिक्स में भारत की भूमिका अहम होने जा रही है। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि मोदी-पुतिन और ट्रंप की न केवल सोच बल्कि उनकी आपसी केमिस्ट्री भी एक जैसी है। इसलिए इन तीनों के मेल यानी त्रिमूर्ति बनने से चीन में खलबली मची हुई है।

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