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अमेरिका की खुफिया एजेंसी CIA का दशकों पुराना एक काला कारनामा

अमेरिका की खुफिया एजेंसी CIA का दशकों पुराना एक काला कारनामा-जिसकी वजह से भारत में गंगा जैसी नदियों के पानी में जहरीला परमाणु रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है। इससे करोड़ों ज़िंदगियाँ जोखिम में पड़ सकती हैं।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस पर एक बेहद सनसनीखेज रिपोर्ट प्रकाशित की है।

बात 1965 की है। एक अत्यंत गोपनीय मिशन के तहत CIA ने अमेरिकी पर्वतारोहियों की एक विशेष टीम को भारत के सहयोग से हिमालय की ऊँचाइयों में भेजा। उद्देश्य था-चीन की परमाणु गतिविधियों पर नज़र रखना।
इसके लिए नंदा देवी पर्वत पर एक गुप्त जासूसी उपकरण लगाया जाना था, जिसमें एंटीना, केबल्स और सबसे अहम हिस्सा था SNAP-19C नाम का पोर्टेबल न्यूक्लियर जनरेटर-जो रेडियोधर्मी प्लूटोनियम से संचालित होता था। यही तकनीक उस दौर में गहरे समुद्र और अंतरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल की जाती थी।

इस डिवाइस का वजन करीब 50 पाउंड था और इसमें मौजूद प्लूटोनियम की मात्रा नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम के लगभग एक तिहाई थी।

लेकिन जैसे ही टीम नंदा देवी की चोटी के क़रीब पहुँची, मौसम अचानक बेकाबू हो गया। तेज़ हवाएँ, बर्फीला तूफान और व्हाइटआउट ने हालात जानलेवा बना दिए।

टीम ने बेस कैंप से पूछा कि आगे क्या किया जाए। जवाब मिला-
“डिवाइस को वहीं सुरक्षित कर दो। नीचे मत लाओ।”

टीम ने न्यूक्लियर डिवाइस को बर्फ़ की एक शेल्फ़ पर छोड़ दिया और अपनी जान बचाने के लिए नीचे उतर आई। वह डिवाइस फिर कभी नहीं मिली।

आज, करीब 60 साल बाद, यह परमाणु जनरेटर अब भी हिमालय की बर्फ़ और चट्टानों के नीचे कहीं दबा होने की आशंका है।

जैसे-जैसे यह सच्चाई सामने आया, चिंता और गहरी होती गई-क्योंकि नंदा देवी के ग्लेशियर गंगा नदी को पानी देते हैं, जो करोड़ों लोगों की जीवनरेखा है। स्थानीय लोग, पर्यावरणविद हैं कि पिघलते ग्लेशियरों के साथ यह प्लूटोनियम किसी जलधारा में मिल सकता है और नीचे बसे इलाकों को जहरीला बना सकता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह डिवाइस अपने आप फटेगा नहीं, लेकिन प्लूटोनियम बेहद विषैला तत्व है, जो कैंसर जैसी गंभीर बीमारियाँ फैला सकता है। एक और डरावना पहलू यह है कि अगर किसी दिन यह डिवाइस बाहर आ गई और गलत हाथों में पड़ गई, तो इसका इस्तेमाल डर्टी बम के रूप में भी किया जा सकता है।

अमेरिकी सरकार ने दशकों तक इस पूरे ऑपरेशन को स्वीकार करने से इनकार किया। बाद में सामने आए दस्तावेज़ों और इंटरव्यूज़ से पता चला कि इस मिशन को छुपाने के लिए फर्जी कवर स्टोरी रची गई थी-यहाँ तक कि एक मशहूर National Geographic के फोटोग्राफर को भी इस कवर का हिस्सा बनाया गया।

1970 के दशक में इस पूरे खुफिया मिशन की पहली परत सामने आई। बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और भारत के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इसे चुपचाप सुलझाने की कोशिश की-लेकिन यह समस्या कभी समाप्त नहीं हुई।

अब सवाल उठता है-
CIA ने इस खुफ़िया मिशन के लिए नंदा देवी पर्वत को ही क्यों चुना?

नंदा देवी हिमालय के उन गिने-चुने शिखरों में से है जहाँ से चीन की सीमा के भीतर सैकड़ों किलोमीटर तक सीधी लाइन-ऑफ़-साइट मिलती है। CIA का आकलन था कि इस ऊँचाई से चीन के परमाणु परीक्षण स्थलों और मिसाइल कमांड सेंटर्स से आने वाले रेडियो सिग्नल्स को इंटरसेप्ट किया जा सकता है-खासकर तब, जब चीन ने हाल ही में अपना पहला परमाणु विस्फोट किया था।

इसके अलावा, उस समय नंदा देवी को बेहद दुर्गम, निर्जन और बाहरी दुनिया से लगभग कटा हुआ था। न कोई स्थायी आबादी, न ही कोई मिल्ट्री आवाजाही थी । CIA को लगा कि अगर कहीं इतना संवेदनशील उपकरण छुपाया जा सकता है, तो वह जगह यही है।

क्या यह सब करते समय उन्होंने कभी सोचा होगा कि एक दिन इसकी कीमत बहुत भारी पड़ सकती है। आज सबसे बड़ी चिंता यही है-जब ग्लेशियर इतनी तेज़ी से पिघल रहे हैं, तब वह छुपा हुआ परमाणु ज़हर कब, कैसे और किस हद तक बाहर आ सकता है, यह किसी को नहीं पता।👍 

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